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गुरुवार, 3 नवंबर 2016

सत्य




यहाँ वहां
शब्दों के जंगल है
भटकता हुआ 
मैं न जाने कब
शब्दों की लटाओं में
उलझता चला गया
शब्दों के जाल
अहंकार के धागे संग
आकांक्षाओं से लिप्त
शायद
सत्य की खोज में.....

सत्य और झूठ को
परिभाषित करते हुए
शब्दों की लम्बी लाइन
अपना अस्तित्व
तलाशते हुए नज़र आई
ज्ञानी का भ्रम पाले
अधूरे को पूर्ण समझ
मन में बसे अन्धकार को
शब्दों की रोशनी में
हटाने का असफल प्रयास

और
स्वार्थ की पराकाष्ठा
का मार्गदर्शन लिए
शब्द
गुनाह करते चले गए
सत्य को
झूठ के तराजू में तोलने
की चेष्ठा करने लगे
और सत्य को
अपने अधिकार में
लाने की सोचने लगे

फिर भी 'सत्य'
कोसो दूर
मैं अज्ञानी समझ न पाया
सत्य विराट होता है
उसे सिद्ध करने के लिए
प्रमाण की नही
समर्पण की आवश्यकता है
शब्दों की नही
मौन की आवश्यकता है
सत्य को पाने के लिए
लड़ना नही पड़ता
कहना नही पड़ता
उससे तो हारना पड़ता है
उसके आगे
समर्पण करना होता है
अपने 'प्रतिबिम्ब' को
पहचानना होता है

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३/११/२०१६

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