फडफडा रहा
मन का रोम रोम
कुछ लिखने को आतुर
बैचेन मन की पीड़ा
आज
समझ नही पा रहा
देश भक्ति लिखूं
या फिर देश द्रोह लिखूं
परिवार और स्वार्थ से अलग
बलिदान देते सैनिक
या ओछी राजनीति
पर छाती पीटते नेता
दोनों मेरी नही सुनते
न मुझे पढ़ पाते
एक को तो जूनून है
देश पर कुर्बान होने का
एक को धर्म
और राजनीति से फुरसत नही
हाँ जनता, आप है
जिन्हें मैं
पीड़ा अपनी कह सकता
लेकिन डर लगता है
आपके चश्मे से
इनमे भी नज़र अब
सीमित हो गई है
राजनीति ने इस चश्मे को भी
मैला कर दिया है
अपना ही दृष्टीकोण
फिट कर दिया है
छणिक भर
खून खौलता दिखता है
तेवर आसमान पर चढ़े लगते है
बड़ी बड़ी बाते
बहस और
गाली गलौच आम हो गया है
धरातल पर सच कहूं
आप न देशभक्त है
न देशद्रोही
आप केवल और केवल
कठपुतली है
फिर किसे अपनी पीड़ा कहूं
जो लिखना चाहता
उसे किसे पढने को कहूं
आपने फर्क करना छोड़ दिया है
अभिव्यक्ति को हथियार बना
टुकड़े टुकड़े कर बाँट दिया है
बहुसंख्यंक भाव को अधिकार
न कहने का, न कुछ करने का
अल्प्संख्यंक भाव को आज़ादी
मातृभूमि को बेचने की
मातृभूमि को कोसने की
सोचा है
मेरा देश का जवान
जिसका कोई धर्म नही
जिसकी
सिर्फ भारतीयता पहचान है
वो
कैसी मौत मरता होगा
जब वो ये सब सुनता होगा
जिसके अपने ही
मातृभूमि से बगावत करते होंगे
जिसके अपने ही
उसे दुश्मन नज़र आते होंगे
हाँ लिखना तो देशभक्ति चाहता हूँ
पर सब में देशद्रोही नज़र आता है
बस यही पीड़ा है मन में
इसलिए मेरे देश के शहीदों
हालात और तुम्हारी कुर्बानी तक
इस बीच
तुम पर कुछ लिख नही पाया
लेकिन तुम्हारी पीड़ा
मेरी पीड़ा एक सी है
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १७/२/२०१६
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