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बुधवार, 12 अगस्त 2015

ये रिश्ता



रिश्ते रिसते रहे
एहसास घिसते रहे
जज़्बात पिसते रहे
ख्वाब फिर भी पलते रहे

चाह मुंह देखती रही
दूरी सवाल पूछती रही
अवेलहना जबाब देती रही
रुक, आस फिर भी कहती रही

बीते पल साथ देते रहे
मन को यूं ही बहलाते रहे
सच को झूठ से सहलाते रहे
मुस्कराहट से गम को छुपाते रहे

जुड़ी है डोर कोई अभी भी
इसलिए साँस चलती अभी भी
मैं समझा नहीं ‘प्रतिबिंब’ कभी भी

क्यों दिल सुनता नही, दिमाग की अभी भी 

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