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रविवार, 16 नवंबर 2014

मुझे लिखना है



मुझे कुछ लिखना है
क्या लिखूं, क्या न लिखू
तुम्ही बताओ क्या लिखू
सच लिखू , या फिर झूठ लिखूं
तुम्हे लिखू या स्वयं को लिखू
तुम्हे लिखूंगा तो सच लिखूंगा
स्वयं को लिखूंगा तो झूठ लिखूंगा
यही तो सच्चाई है आज की
सच दूसरो का लिखना ही भाता है
अपना झूठ तो सदा लिखता आया हूँ
अरे हाँ बुराई भी तो दूसरो की ही नज़र आती है
हम तो खुद को सच्चाई का पुतला मानते है
अंगुली उठाने में आनंद भी तो आता है
खुद को वाह वाही और दूसरे को शर्मिंदगी मिलती है
और हाँ लिखने के बाद एक जीत का अहसास
एवरेस्ट पर विजय पताका फहराने  जैसा
चेहरे पर मुस्कराहट ला देता है
और फिर से एक बार तुम्हे लिखने को तैयार हूँ
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

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