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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

ये दुनियां ....




अँधेरे बहुत है 
उजाले कम है 
यहाँ 
थोड़ी खुशियाँ है
जुड़े कितने गम है
कितने बेबस हम है

वक्त की कसौटी
मांग रही हौसला
लेकिन
अंग अंग बिखरा सा
तन मन बोझिल सा
रोम रोम सिसकता सा

कांटो की सेज सजी
पल पल चुभता है
अब
फूल एक कोने में
खड़ा मुस्कराता है
ज़ख्म हरा करता है

मेरे अस्तित्व को
रोज रोज ठेस लगती है
दुनिया
मंद मंद मुस्काती है
तमाशा देखती जाती है
बहती गंगा में हाथ धो जाती है

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

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